देहरादून: पार्टी आलाकमान के आशीर्वाद से दिग्गजों को धूल चटाकर भले 11वें मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी की ताजपोशी हो गई हो। लेकिन शपथ से पहले फूटे असंतोष के संकेत और शपथ के दौरान दिग्गज विधायकों के चेहरों पर झलकती रही मन की कसक पहली कैबिनेट की तस्वीरों में भी देखी गई।ऑपरेशन ‘ऑल इज वेल’ के तहत असंतुष्ट वरिष्ठ नेताओं से पहले प्रदेश अध्यक्ष मदन कौशिक और प्रदेश प्रभारी दुष्यंत गौतम ने वार्ता कर मान-मनौव्वल की जमीन तैयार की और उसके बाद गृहमंत्री अमित शाह के एक फोन कॉल के आने की देर थी कि शपथग्रहण को लेकर ना-नुकूर करते वरिष्ठ विधायकों ने फिलहाल कैप्टेन धामी की टीम ज्वाइन करना ही बेहतर समझा और आराम से शपथग्रहण संपन्न हो गया।
ये तो रहा असंतोष को क़ाबू कर शपथग्रहण निर्विघ्न करा लेने का अभियान लेकिन जिस तरह से वरिष्ठ नेताओं को आलाकमान का फैसला असहज कर गया खासतौर पर कांग्रेसी गोत्र के नेताओं को कॉन्फ़िडेंस में लेना तो दूर इतने बड़े फैसले की भनक भी न लगने देना कई संदेश दे गया है। सतपाल महाराज के 2014 और बाकी नेताओं के 2016-17 में बीजेपी में शामिल होने के बाद शायद ये पहला मौका आया है जब तमाम दिग्गज इस तरह की फजीहत और असहज स्थिति में खुद को पा रहे हैं।
यही वजह है कि सतपाल महाराज और हरक सिंह रावत सहित अन्य कांग्रेसी गोत्र के नेता सबसे ज्यादा झटका महसूस कर रहे हैं। नाराजगी बिशन सिंह चुफाल की भी सामने आई लेकिन वह उतनी मायने नहीं रखती क्योंकि चुफाल घर बैठ सकते हैं लेकिन बीजेपी के बाहर जाने की नहीं सोच पाएंगे।
सवाल है कि क्या कांग्रेस से पालाबदल कर बीजेपी आए नेताओं के लिए पांच-छह सालों में ये पहला मौका आया जिसने अहसास कराया कि बीजेपी उनका लंबे समय तक स्थाई ठिकाना नहीं हो सकती क्योंकि त्रिवेंद्र-तीरथ से धामी तक पार्टी नेतृत्व ने संकेत दिया कि मुख्यमंत्री को लेकर उसका दांव अपने खाँटी चेहरों के इर्द-गिर्द ही रहेगा।
ऐसे में पहली बार कांग्रेस से आए नेताओं में ये अविश्वास जन्मेगा कि 2022 यानी चुनाव तक तो जैसे-तैसे इस असहज सियासी स्थिति में टाइम काटा जा सकेगा लेकिन चुनाव बाद दोबारा सरकार बनने या न बनने की स्थिति में कौन किस हैसियत से पार्टी में अपनी जगह महफ़ूज़ पाएगा। बीजेपी में रहते अगले चुनाव में 1991 से मंत्री बनते-बनते थक चुके हरक सिंह रावत के लिए कोटद्वार का किला फतह करना ही कठिन हो सकती है, चुनाव बाद सत्ता मिल भी जाए तो हिस्सेदारी तो भूल ही जाइए। सतपाल महाराज अबके पांच साल सीएम नहीं बन पाए तो आगे की तस्वीर धामी की ताजपोशी में बखूबी देख चुके हैं कि उनका भविष्य बीजेपी में आगे कितना सुनहरा रहने वाला है। रही यशपाल आर्य और सुबोध उनियाल की तो कठिनाइयाँ उनके सामने भी दिख रही हैं।
ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या पुष्कर सिंह धामी की ताजपोशी ने साढ़े चार साल से बंद पड़े पंख फिर खोलकर नई उड़ान भरने का इशारा सियासत के इन परिंदों के लिए कर दिया है। भले अभी ख़ामोशी की तह में छिपे इरादों की दस्तक सुनाई न दे पा रही हो लेकिन इसे बड़े तूफान से पहले की ख़ामोशी समझ सकते हैं।