दृष्टिकोण ( प्रो सुशील उपाध्याय): हाल के दिनों की कई घटनाएं हैं। इन सारी घटनाओं का सीधे तौर पर आपस में कोई रिश्ता नहीं बनता, लेकिन उस सूत्र को पकड़ा जा सकता है जो इन सब के रिश्ते को बताने में सक्षम है। और इनमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो हम हर रोज न देखते हों। बस, नोटिस नहीं करते। कभी इरादतन नहीं करते और कभी गैर इरादतन। समाज के भीतर का विभाजन इतना गहरा हो रहा है कि निकट भविष्य में उसे पाटना बिल्कुल आसान नहीं होगा।
मुराद अली खान कई साल से बस यात्रा के मेरे सहयात्री हैं। उत्तराखंड पुलिस में सब इंस्पेक्टर हैं और मैदानी इलाके के एक पुलिस स्टेशन में तैनात हैं। पिछले दिनों उनकी बेटी ने पीसीएस की मुख्य परीक्षा पास की है। वे बेटी को इंटरव्यू की तैयारी के लिए दिल्ली में किसी कोचिंग इंस्टिट्यूट में एडमिशन दिला कर आए हैं। इन दिनों इस बात से खिन्न हैं कि उन्हें दिल्ली में बेटी के लिए रहने की जगह ढूंढने में इसलिए दिक्कत हुई क्योंकि उनका नाम दूसरों से अलग है। परेशानी ये है कि उनकी बेटी किसी ऐसी जगह नहीं रहना चाहती जहां केवल मुसलमान रहते हों।
वे मुझसे और अक्सर खुद से भी यह सवाल करते हैं कि 30 साल की वर्दी वाली नौकरी के बाद अगर उन्हें हर जगह इस बात की सफाई देनी पड़े कि वे भी इस मिट्टी का उतना ही हिस्सा है जितना कि कोई उनसे अलग नाम वाला व्यक्ति, तब मेरे पास उनके सवाल का कोई जवाब नहीं होता। मैं केवल इतना ही कहता हूं कि यह वक्त चुनौतीपूर्ण है, लेकिन गुजर जाएगा। उन्हें मेरी बातों से कोई दिलासा नहीं मिलती। वे, देखते हैं, कहकर बात को खत्म कर देते हैं। बात खत्म करने से असली सवाल खत्म नहीं होता। यदि किसी कौम या धर्म में कुछ लोग खराब हैं तो क्या उन चंद लोगों की वजह से पूरी कौम खराब है?
जहर नीचे तक फैल रहा है। दोनों तरफ से फैल रहा है। उसके निशान हर तरफ हैं। जैनब हमारे कॉलेज में एमए की स्टूडेंट है। कई साल पहले उसके पिता की मौत हो गई थी। वो अपनी मां और बहन-भाइयों के साथ मिलकर घर पर ही छोटा-मोटा काम करके अपनी पढ़ाई जारी रखे हुए है। हर साल ईद पर उसका जोर रहता है कि वो अपने शिक्षकों को घर पर बुलाए, जो नहीं आते उनके लिए शीर, मिठाई लेकर आती है। कॉलेज में 50 फीसद से ज्यादा बच्चे मुसलमान है इसलिए मिठाई और शीर वाली बात लगभग सामान्य है।
असामान्य बात कुछ और है। इस बार ईद पर जैनब से बात हुई तो उसने परेशान करने वाला सवाल पूछ लिया। क्या सर हम यहां रह पाएंगे या हमें यह जगह छोड़कर कहीं और जाना होगा ?
असामान्य बात कुछ और है। इस बार ईद पर जैनब से बात हुई तो उसने परेशान करने वाला सवाल पूछ लिया। क्या सर हम यहां रह पाएंगे या हमें यह जगह छोड़कर कहीं और जाना होगा ? भले ही मैं उसके सवाल की अंतर-ध्वनि को सुन और समझ पा रहा था, लेकिन मैंने कहा कि ऐसा उसके दिमाग में क्यों आया, ऐसा सोचना भी गलत है। ये धरती, ये जगह, ये मुल्क तो हम सबका साझा है। और रहेगा भी।
उसने बताया कि परिवार और आस-पड़ोस में अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि उनके ऊपर कुछ लोग हमला करने वाले हैं या यहां से उन्हें खदेड़ दिया जाएगा। जैनब के आसपास जो बातें हो रही हैं, वैसी किसी अनहोनी के घटित होने की दूर तक कोई आशंका नहीं है क्योंकि देश में अब भी कानून का राज है, अब वे लोग मौजूद हैं जो गलत को गलत कह सकते हैं, लेकिन सवाल यह है कि उन परिस्थितियों का निर्माण किसने किया, जिसके चलते किसी युवा मस्तिष्क में ऐसे सवाल पैदा हो रहे हैं!
किसी एक पक्ष को पूरी तरह सही और दूसरे पक्ष को पूरी तरह गलत कह देना आसान नहीं है। बुनियादी तौर पर मेरी समझ यही है की अच्छे-बुरे, कट्टर-धर्मांध लोग हर तरफ होते हैं। इन्हें किसी खास धर्म या विचारधारा के साथ जोड़ कर नहीं देखा जा सकता, लेकिन जब अविश्वास का माहौल बनने लगे, तब ऐसी-ऐसी चीजें सामने आने लगती हैं, जिन पर यकीन करना लगभग असंभव हो जाता है। हमारे कॉलेज के परिसर में एक पुराना शिव मंदिर है। बहुत सारे शिक्षक, कर्मचारी, स्टूडेंट्स और बाहर के लोग अपनी आस्था के अनुरूप इस मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए आते-जाते हैं। दिनभर मंदिर का दरवाजा खुला रहता है, जिसका मन वहां जाने का हो, बैठने का हो, वहां बैठकर पढ़ने का हो उन पर किसी तरह की रोक नहीं है। न ही इस बात की बंदिश है कि वहां बैठने वाले की जाति और धर्म क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए।
पिछले दिनों दो लड़के शिकायत लेकर आए कि मंदिर में दूसरे धर्म की लड़कियां घुसी रहती हैं। मेरे लिए ये सवाल भी बेहद परेशानी भरा था क्योंकि यह सवाल इससे पहले कभी सामने ही नहीं आया। और आएगा भी क्यों, क्योंकि मंदिर किसी खास सोच के लोगों के लिए नहीं है। यदि वहां जाकर बैठने वाले को कोई संकोच नहीं तो फिर मुझे या किसी अन्य व्यक्ति को यह अधिकार कहां से मिल जाता है कि वह किसी खास जाति या धर्म के लोगों को ही उस परिसर में जाने देगा। इन लड़कों को यथासंभव समझाने की कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने और अंत में उन्हें डांट कर निकालना पड़ा। कुछ देर बाद वे अपने पिताजी को ले आए और फिर उसी मुद्दे पर बहस हुई। परिणाम कुछ नहीं निकला क्योंकि मैं अपनी बात पर अडिग था और वे लड़के किसी सूरत में मानने को तैयार नहीं थे। मूल प्रश्न फिर वही आता है कि वे कौन लोग हैं जो नई पीढ़ी को ऐसी समझ के साथ विकसित होने दे रहे हैं, बल्कि विकसित कर रहे हैं।
इन्हीं दिनों एक और पीड़ादायी घटना हुई। देहरादून से हरिद्वार जाती हुई बस में एक परिवार और कंडक्टर के बीच बस से उतरने को लेकर बहस हो गई। बहस काफी देर तक होती रही। कंडक्टर ने उस जगह बस नहीं रुकवाई जहां कि संबंधित परिवार उतरना चाह रहा था। इस बहस का खात्मा कंडक्टर द्वारा की एक ऐसी टिप्पणी से हुआ जो किसी भी सचेत और संवेदनशील इंसान के लिए सदमे जैसी होगी। कंडक्टर ने तैश में आकर कहा कि तुम इस देश में गंदगी हो। इन शब्दों में निहित अर्थ को समझने के लिए किसी खास तरीके या प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं है। कंडक्टर की इस टिप्पणी के बाद मुझसे चुप नहीं रहा गया, जितना विरोध कर सकता था, मैंने किया। बस में और भी ऐसे लोग थे जिन्होंने नाराजगी और कंडक्टर को फटकारा। आखिरकार कंडक्टर चुप हो गया, लेकिन कंडक्टर की चुप्पी से वो जहर खत्म नहीं हो सकेगा, जिसका फैलाव सोसाइटी के भीतर बहुत धीरे-धीरे लेकिन व्यापक मात्रा में हुआ है।
किसी भी अच्छे, लोकतांत्रिक, उदार और समावेशी समाज में किसी एक जाति या धर्म के लोगों को किनारे करके आगे बढ़ा जा सकता है, मुझे इस पर संदेह है। और हमेशा रहेगा।
इन दिनों राहुल गांधी की एक टिप्पणी पर काफी तीखी पॉलिटिकल बहस हो रही है जिसमें उन्होंने लंदन में एक कॉन्फ्रेंस में कहा कि पूरे देश में कट्टरवादी सोच ने हर तरफ केरोसिन फैला दिया है इसलिए आग लगने का डर बहुत गहरा हो गया है। यह ठीक है कि इस टिप्पणी के पीछे एक राजनीतिक एजेंडा भी है, लेकिन जब हम निर्दलीय सांसद नवनीत राणा और एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी, अकबरुद्दीन ओवैसी के जहरसने भाषण सुनते हैं तो साफ पता लगता है कि केरोसिन की बाल्टियां और माचिस दोनों तरफ के हाथों में है। मस्जिदों के बाहर जाकर हनुमान चालीसा पढ़ने की जिद और सुलगते माहौल में अकबरुद्दीन ओवैसी का औरंगजेब की कब्र पर जाकर एक खास संदेश देने का प्रयास, साफ-साफ बताता है कि सोसाइटी के भीतर क्या कुछ चल रहा है। लेकिन क्या हम इस सब की कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं ?
ऐसे सवालों का कभी कोई आसान जवाब नहीं होता। अब वह पीढ़ी तो नहीं बची जिसने देश के बंटवारे के दंगे याद हों, लेकिन वह पीढ़ी जरूर मौजूद है जिसने सिखों के खिलाफ 84 के दंगे देखे और सहे हैं। ये याद रखना चाहिए कि कट्टरता और मजहबी उन्माद मनोरंजन का मामला कतई नहीं और किसी एक बड़े समुदाय को चिन्हित करके आइसोलेट करने की कोशिश समाज के भीतर की खाई को इतना गहरा कर देगी कि दोनों ही तरफ़ के लोग उसमें गिरेंगे और मरेंगे। तब शायद कोई निकालने वाला भी नहीं बचा होगा!
साभार एफबी: ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक हैं। वर्तमान में बतौर प्रिंसिपल सीएलएम पीजी कॉलेज, हरिद्वार, उत्तराखंड में कार्यरत हैं।विचार निजी हैं। संपर्क सूत्र- 9997998050 )