दृष्टिकोण: तो क्या दो हफ्ते से चल रहा बैठकों का दौर बताता है कि यूपी में गतिरोध अति गंभीर है, अबके आमने-सामने मोदी और योगी ठहरे!

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बीजेपी की मौजूदा मोदी-शाह रिजीम में अकेले यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ हैं जो अलग वजूद रखते हैं और इसी संभावित भविष्य की चुनौती से दिल्ली नेतृत्व ठीक 2022 के चुनाव से पहले निपट लेना चाहता है। वो सिर्फ इसलिए नहीं कि यूपी चुनाव में उतरने से पहले बीजेपी संगठन से सरकार के तमाम कील-काँटे दुरुस्त कर लेना चाहती है। अगर महज स्वतंत्र देव सिंह को बदलकर केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाना रहा होता और महज पांच-छह मंत्रिमंडल में नए चेहरे भर देना भर रहता तो संघ से लेकर बीजेपी नेतृत्व को दो-दो हफ्ते तक माथापच्ची न करनी पड़ रही होती।


दरअसल, इस बार मसला तो योगी आदित्यनाथ खुद हैं और प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनके टकराव की खबरें यूँ ही नहीं राजनीतिक गलियारे की सुर्ख़ियाँ बन रही बल्कि इसके पीछे एक नहीं कई वजहें हैं। अब कहा जा रहा है कि सीएम के तौर पर योगी का वर्किंग स्टाइल दिक्कत पैदा कर रहा है और योगी अफसरों की जमात में घिरकर काम कर रहे हैं। अब यहीं से सवाल उठता है कि आखिर अफसरों की टीम तो प्रधानमंत्री मोदी को भी घेरे रहती है। ऐसे कितने अवसर आए सात सालों में जब किसी केन्द्रीय मंत्री ने अपने बूते कुछ बोलने का साहस दिखाया हो! अपवाद स्वरूप केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी को छोड़ दीजिए वरना वित्त से जुड़े मसले पर रेल मंत्री बोलते दिखते हैं तो रक्षा मसले पर कोई और!

योगी क्या बीजेपी के हर छोटे-बड़े राज्य का मुख्यमंत्री गुजरात से लेकर दिल्ली तक मोदी सक्सेस स्टोरी को पढ़कर कॉपी करने की कोशिश करता है। इसमें सबसे पहले अफसरों की टीम को ही अंगीकार करता है हर भाजपाई मुख्यमंत्री और दूसरे नंबर पर ठिकाने लगाने लगता है पार्टी के भीतर के अपने विरोधियों को। योगी भी यही कर रहे तो अलग कैसे! आखिर पूर्व नौकरशाह अरविंद कुमार शर्मा की यूपी विधान परिषद में पैराशूट लॉंचिंग कराना भी तो यही संदेश देता है कि अफ़सरान ज्यादा कारगर रहते हैं। वरना एक पूर्व नौकरशाह को बड़ा ओहदा दिलाने की दिल्ली की रट और उसे नकारते जाने की योगी की जिद अंदरूनी जंग को इस मुहाने तक न लेकर आती।


अब ये अलग बात है कि योगी का खुद को मोदी के बाद चेहरा मानकर चलने जैसी आशंका मोदी-शाह कैंप में घर कर गई हो और इसी नंबर दो की लड़ाई को कोरोना काल में गंगा में तैरती लाशें और पंचायत चुनाव की हार के बहाने दिल्ली जीत लेना चाहती हो। वैसे ये कोई गुनाह तो नहीं आखिर यूपी का सीएम बनकर प्रधानमंत्री का ख़्वाब कल्याण, मुलायम से लेकर मायावती तक सभी देखते आए हैं। योगी बखूबी जानते हैं कि 2017 में मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्हें संघ के समर्थन की बदौलत मिली थी और आगे भी संघ का साथ रहा तो उनकी कुर्सी हिला पाना दिल्ली के लिए कठिन चुनौती बना रहेगा। देखना दिलचस्प होगा दिल्ली-लखनऊ में पहले पलक कौन झपकाता है!


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