देहरादून(पवन लालचंद): 2021 में असम में कांग्रेसी गोत्र के बावजूद हिमंत बिस्व सरमा की मुख्यमंत्री के तौर पर ताजपोशी ने उतराखंड बीजेपी में कांग्रेसी गोत्र के चुनिंदा नेताओं को सबसे ज्यादा खुश कर दिया था। हालाँकि त्रिवेंद्र को हटाकर 10 मार्च को तीरथ की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर ताजपोशी के बाद ये ख़ुशफ़हमी दूर हो जानी चाहिए थी लेकिन सावन के अंधे चंद सियासतदानों को मानो 3 जुलाई आने और दिन के 3 बजने का इंतजार रहा हो। फ़िर क्या हुआ धामी के नाम का समर्थन करते महाराज, हरक जैसे दिग्गजों को अंदर ही अंदर गहरा गुस्सा और अंधकार आग़ोश में लेने लगा और ये एक सपने के चकनाचूर होकर बिखरने का अहसास था। पहाड़ प्रदेश की पॉलिटिकल केतली में उबाल मारते ताजा हालात जानने से पहले चलिए एकबारगी नॉर्थ-ईस्ट होते असम के सियासी चाय-बाग़ान से हिमंत बिस्व सरमा की ताजगी भरी कहानी जान आते हैं।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा की जुलाई 2014 में कांग्रेस छोड़कर 2015 में बीजेपी में आने से लेकर प्रदेश के सत्ता शीर्ष तक पहुँचने की कहानी चुनौतियों का मुँह चिढ़ाते हुए किसी हसीन ख़्वाब के तामील होने की सुनहरी पटकथा से कम नहीं है। उस दौर में तरुण गोगोई जैसे दिग्गज कांग्रेसी के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर बीजेपी में आए हिमंत बिस्व सरमा के लिए नई पार्टी का सफर कोई रोलर कोस्टर राइड नहीं रही बल्कि बीजेपी पहली बार असम सूबे में सरकार बनाने का ख़्वाब लेकर नोर्थ-ईस्ट के सियासी मैदान में उतरी थी और न्यू एंट्रेंट हिमंत के सामने मोदी-शाह के करीबी सर्बानंद सोनोवाल जैसे नेताओं की तगड़ी चुनौती थी। 2016 में असम में बीजेपी की पहली बार सरकार बन भी गई लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी हिमंत बिस्वा सरमा की बजाय सर्बानंद सोनावाल को दे दी गई।
हालाँकि हिमंत सरमा को अहम मंत्रालयों के साथ मंत्रीपद और नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस यानी NEDA का संयोजक बनाकर ताकत दी गई। हिमंत बिस्वा ने न केवल 2019 में लोकसभा की लड़ाई में पीएम मोदी के हाथ मजबूत किए बल्कि 2021 में गैर-कांग्रेसी सरकार को पहली बार असम रिपीट कराकर इतिहास रचने में भी अहम योगदान दिया तो पार्टी ने सीएम बनाकर इसका इनाम दे दिया। कहते हैं बीजेपी के 60 में 42 विधायकों ने आलाकमान को लिखकर हिमंत बिस्वा का समर्थन भी किया था और संघ भी कांग्रेसी बैकग्राउंड के बावजूद सरमा का समर्थन कर रहा था। असम और पूरे नॉर्थ-ईस्ट में 2024 को लेकर सरमा को आगे कर बीजेपी ने दूर का दांव भी खेला है।
अब आते हैं उत्तराखंड! पहाड़ पॉलिटिक्स में कांग्रेस से बगावत कर सतपाल महाराज 2014 की लोकसभा की लड़ाई से पहले ही बीजेपी चले गए थे और सीटिंग सांसद होकर भी पौड़ी सीट सरेंडर कर जनरल खंडूरी को जिताने में जुट गए। जैसे हिमंत ने मुख्यमंत्री गोगोई से बगावत की थी वैसे ही हरदा के विरोध में महाराज ने भी पाला बदला था लेकिन हिमंत बीजेपी की 2016, 2019 और 2021 की तीन चुनावी विजय के आर्किटेक्ट्स में से अग्रिम पंक्ति में रहे। लेकिन महाराज हरदा विरोध में न किसी विधायक को तोड़कर ले जा सके और न 2014, 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनावों में अपनी सीट चौबट्टाखाल से अधिक कहीं कोई निर्णायक भूमिका निभा पाए। यही वजह रही कि मीडिया और सियासी गलियारे में संघ नेताओं और यहाँ तक कि मोहन भागवत से ठीक रिश्तों की चर्चा होती जरूर रही लेकिन न 18 मार्च 2017 को त्रिवेंद्र के सीएम बनते और न 10 मार्च को तीरथ और फिर न ही अब 3 जुलाई को धामी के नेता विधायक दल चुने जाते इन रिश्तों की गर्माहट नजर आई। महज मुख्यमंत्री का सपना लेकर गए महाराज को भला बीजेपी क्यों तश्तरी मे ताज सजाकर देने वाली थी।
महाराज अब तीसरे सीएम के तौर पर धामी की धमक देखकर पिछली बार वाली उसी तुनक मिज़ाजी का मुज़ाहिरा पेश कर रहे हैं। कुछ इसी अंदाज में त्रिवेंद्र-तीरथ को सीएम बनाने के फैसले का विरोध भी सीएम के बाद शपथ नंबर दो पर लेने यानी सब मंत्रियों में वरिष्ठ मंत्री बनने की चाहत पूरी होते ही खत्म हो गया था अबके भी उससे आगे मन-मसोसकर रहने के अलावा कोई चारा नहीं है। बीजेपी महाराज की सियासत की गहराई माप चुकी है लिहाजा आज भी उनकी ना-नुकूर के साथ कोपभवन में बैठने से कहां बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व या संघ मान-मनौव्वल को पसीना बहाने उतरते दिख रहे।
महाराज जैसे हालत कमोबेश 18 जुलाई 2016 को बगावत कर आए बहुगुणा-हरक कैंप के विधायकों या 2017 के चुनाव से ठीक पहले आए यशपाल आर्य जैसे दिग्गज की नजर आ रही है। कांग्रेस में अगर महाराज पौड़ी-गढ़वाल लोकसभा सीट के ज़रिए 14 विधानसभा क्षेत्रों के नीति-नियंता हुआ करते थे तो बहगुणा टिहरी-गढ़वाल और हरक सिंह देहरादून से लेकर गढ़वाल में किसी भी सीट के समीकरण बदलने का माद्दा रखते थे। आर्य कुमाऊं सहित सूबे की दलित राजनीति के एक बड़े चेहरे रहे । लेकिन गढ़वाल में पहले से नेताओं की बड़ी जमात रखे बीजेपी लंबे समय तक कांग्रेसी गोत्र के नेताओं पर निर्भर क्यों रहती भला! वैसे भी बीजेपी में आकर कुर्सी से चिपके कांग्रेसी गोत्र के अधिकतर नेता अपनी सीट तक महदूद रहने को नियति मान चुके हैं फिर हिमंत बिस्व सरमा के राइज में अपनी राजनीतिक जमीन को उर्वरा मानने की ख़ुशफ़हमी कितने दिन तक टिकती! धामी की धमक हुई तो ताश के पत्तों की तरह कमजोर सियासी जमीन पर बनी सपनों की ये मीनारें ज़मींदोज़ होने लगी हैं।
सवाल इतना भर है कि हिमंत बिस्व सरमा बीजेपी के नॉर्थ-ईस्ट मिशन के मजबूत स्तंभ बनकर उभरे हैं लेकिन उसके मुकाबले पहाड़ पॉलिटिक्स में न बीजेपी कभी इतनी कमजोर रही और न महाराज या किसी दूसरे कांग्रेसी गोत्र के नेता ने अपनी सीट से आगे की सियासी जमीन पर कमाल करते नहीं दिखाया। फिर हिमंत की ताजपोशी की तस्वीरों में अपने लिए पहाड़ पॉलिटिक्स के सिरमौर बनने के हसीन सपने बेमानी थे। उनको टूटना ही था फिर 18 मार्च 2017 या 10 मार्च 2021 को न सही 3 जुलाई 2021 को ही सही! अब सवाल इतना भर है कि तमाम रुसवाई के बावजूद 6-8 माह ही सही लेकिन सत्ता में बने रहने की चाहत या फिर बेक़द्री पर बगावत का रास्ता पकड़कर नए सिरे से हिमंत बिस्वा सरमा बनने का नया सपना देखने की हिम्मत दिखती है..इसके लिए हम आप ज्यादा नहीं 4 जुलाई के 5:30 बजे शपथग्रहण की तस्वीरों के नुमाया होने तक इंतजार कर लेते हैं।