मानस में ठगी के मोती!
देहरादून (इंद्रेश मैखुरी): पुरानी कथा यह है कि कुछ ठगों ने राजा से कहा कि वे राजा के लिए सोने-चाँदी के ऐसे वस्त्र बना देंगे, जो सिर्फ निष्पाप लोगों को ही नजर आएंगे. ढेर सारा सोना-चाँदी ठग कर, उन्होंने राजा का निर्वस्त्र जुलूस निकाल दिया. वो तो एक बच्चे ने कहा कि राजा नंगा है, तब समझ में आया कि राजा से ठगी हो गयी है.
इधर अपने उत्तराखंड में लोकतंत्र के नए-नवेले राजा से ठग ने साधु वेश में पुस्तक का विमोचन करवा दिया. यहां राजा से ठगी की ओर इंगित करने वाला कोई बच्चा नहीं था, इसलिए बात तत्काल नहीं खुली. जब साधु वेशधारी अन्यत्र ठगी में पकड़ा गया, तब पता चला कि राजा जी उसकी पुस्तक का लोकार्पण कर चुके हैं. वह पकड़ा न जाता तो बात खुलती भी नहीं. लोकतंत्र के नए नवेले राजा से पुस्तक विमोचन करवाने राजा के गले में अपने नाम का गमछा डालने की बाद भी वह 1.75 करोड़ की ठगी के आरोप में पकड़ा गया. इस तरह देखें तो वह कच्चे टाइप का ठग निकला या फिर उसका ओवर कॉन्फ़िडेंस उसे ले डूबा ! हालांकि प्रोफेशनल ठगों से भी कई बार चूक हो ही जाती है, नटवरलाल भी कई बार पकड़ा गया था, फिर ठग विद्या से फरार हो गया.
नए दौर के ठगों को नटवर लाल की तरह ठग विद्या से फरार नहीं होना पड़ता. उनकी (अंध)भक्त मंडली बड़ी होती है, जो उनकी ठगी ही नहीं हत्या, बलात्कार में लिप्त रहने को भी चमत्कार समझती है तो सत्ता नतमस्तक हो कर उन्हें खुद ही जेल के दरवाजे तक ले आती है. सच का सौदा करने वाले डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम को ही देख लीजिये. पंजाब में चुनाव नजदीक हैं तो हरियाणा में राम रहीम को गुपचुप तौर पर, इस या उस बहाने पैरोल पर बाहर लाया जाता रहता है. राम रहीम और उसके भक्तों को कम से कम हरियाणा की सरकार यह संदेश देती रहती है कि आपके तमाम अपराधों के बावजूद हमारी आपके प्रति फरमाबरदारी में कोई कमी नहीं हैं, बस वो तो नामुराद अदालतें हैं, जिनके चलते आप कैद हैं !
लेकिन जिस ठग की हम यहां बात कर रहे हैं, बड़ा साहित्य अनुरागी ठग है. बाकायदा किताब का विमोचन करवाने गया, उत्तराखंड में लोकतंत्र के नए-नवेले राजा के पास. इस मामले में वह बड़े आगे की चीज मालूम पड़ता है. वरना मुख्यमंत्री के साथ फोटो खिंचवाने के लिए किताब के विमोचन की क्या जरूरत है ? इसी राज्य में एक साधु भेसधारी है, जिसके यहां जाना और गंगा किनारे आरती करते हुए फोटो खिंचवाना, सारे मंत्री-मुख्यमंत्री अपने राजकीय दायित्वों में प्राथमिक दायित्व समझते हैं. वह गंगा किनारे सरकारी जमीन कब्जा कर बैठा पर अभी तक हाई कोर्ट में भी तारीख पर तारीख चल रही है. पर यह वाला ठग साहित्य प्रेमी था, इसलिए किताब का विमोचन करवाने गया मुख्यमंत्री के पास ! और किताब का नाम तो देखिये- मानस की आस. मानस में तो ठगी का मोती , मुख्यमंत्री के साथ फोटो से मानस के उस ठगी के मोती की रक्षा की जगी आस !
यूं साहित्य में चोरी-ठगी कोई नई बात नहीं है. कविता-कहानियों की चोरी-ठगी होती ही रहती है. कतिपय राजनीतिक ठगों को भी साहित्यिक होने का शौक चर्राता रहता है तो वे ठेके पर साहित्य लिखवाते हैं, अपने नाम से छपवाते हैं. फिर देश-विदेश में खुद कार्यक्रम करवाते हैं, श्रीफल-शाल भी अपना ले जाते हैं और अपने माल से अपने चंपूओं के हाथों, खुद का सम्मान करवाते हैं. देश वापस आकर यहाँ खबर छपवाते हैं- फलाने जी को जर्मनी में उनके साहित्य के लिए श्रीफल और शाल दे कर सम्मानित किया गया. भाई श्रीफल-शाल भारत में लोग देते हैं, जर्मनी में क्यूँ देंगे, वे जर्मनी का स्मृति चिन्ह देंगे कोई ! पर चूंकि सारा इंतजाम फलाने जी का है, सम्मान का सामान भी भी खुद ले कर आए हैं, इसलिए देने वाले इस बात की बहुत चिंता नहीं करते कि वे क्या दे रहे हैं और चंपूओं को तो जय-जयकार करने से मतलब है, बस !
इस तरह साहित्यिक चोरी और ठगी तथा राजनीतिक ठगों के साहित्यिक होने के किस्से तो बहुत हैं पर ठग के साहित्यिक होने की महत्वाकांक्षा का यह बिरला मामला जान पड़ता है.
यूं राजा के आँख-नाक-कान अधिकारीगण होते हैं, इंटेलिजेंस यानि अभिसूचना वाले होते हैं. हालांकि इस वाक्यांश से ऐसा प्रतीत होता है कि राजा का तो शरीर मात्र होता है (उसे भी दिल्ली वाले कभी भी फूटबॉल बना देते हैं) पर राजा के बारे में कहा ऐसा ही जाता है ! तो जब राजा के इन आँख-नाक-कान यानि अभिसूचना वालों को राजा के पास ठग के पहुँचने की ही सूचना न हुई तो धन्य है अभिसूचना और धन्य है इनका इंटेलिजेंस !
आम तौर पर सत्ता तो जनता को ठगती ही रहती है. हर पाँच साल में जो चुनाव जीतने के लिए घोषणापत्र जारी होता है, वह जनता से वोट की ठगी का ही तो खुला पत्र होता है. जनता के जीवन सुधारने के लिए आसमान को जमीन पर उतारने के वायदे होते हैं और चुनाव बाद नेता आसमान पर और जनता जमीन के नीचे धँसी जाती है. यह खुली लोकतांत्रिक ठगी ही तो है. ऐसी ठगी करने वालों के निकट ठग पहुंचे तो आश्चर्य कैसा ?
“रागदरबारी” में रुप्पन बाबू का चरित्र चित्रण करते हुए श्रीलाल शुक्ल लिखते हैं- “उनका नेता होने का सबसे बड़ा आधार यह था कि वे सबको एक निगाह से देखते थे. थाने में दरोगा और हवालात में बैठा हुआ चोर- दोनों उनकी निगाह में एक थे.” ठग द्वारा नए-नवेले राजा से पुस्तक विमोचन करवाने पर हाय-तौबा मचाने से पहले यह भी जान लिया जाये कि कहीं नए-नवेले राजा भी रुप्पन बाबू की तरह सबको एक निगाह से देखने के कायल तो नहीं हैं !
साभार एफबी वॉल
(लेखक एक्टिविस्ट एवं सीपीआई(एमएल) के गढ़वाल सचिव हैं)