ADDA ANALYSIS मोदी चाहेंगे बने ऐसा मुख्यमंत्री? नामों की लंबी होती फ़ेहरिस्त और नेताओं की तेज होती धड़कनों के बीच इस चेहरे की तलाश में हैं मोदी-शाह!

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देहरादून: Who will be next Chief Minister of Uttarakhand? उत्तराखंड का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा इसे लेकर भले अभी भी सस्पेंस बरक़रार हो लेकिन सोमवार को राजनीतिक लिहाज से तीन डेवलेपमेंट जरूर हुए। भाजपा ने उत्तराखंड सहित चारों राज्यों में सरकार गठन को लेकर केन्द्रीय पर्यवेक्षक (Observer) नियुक्त कर दिए हैं। उत्तराखंड में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह केन्द्रीय ऑब्ज़र्वर और मीनाक्षी लेखी को-ऑब्ज़र्वर बनाकर भेजी जा रही हैं। भाजपा कॉरिडोर्स से जानकारी मिली है कि संभवतया 19. मार्च के विधायक दल बैठक और उसी दिन या फिर 20 को नए सीएम और उनके मंत्रिमंडल का शपथग्रहण कार्यक्रम होगा।

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सोमवार को दूसरा बड़ा डेवलपमेंट हुआ ये कि उत्तराखंड के तमाम लोकसभा और राज्यसभा सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात की। अब भले इसे महज़ फ़ोटो-ऑप क़रार दिया जा रहा हो लेकिन जब ‘अगला मुख्यमंत्री कौन बनेगा?’ की सियासी अंताक्षरी थमी नहीं हो तब प्रधानमंत्री से प्रदेश के सांसदों की मुलाक़ात के अन्य निहितार्थ भी निकाले जा सकते हैं। तीसरा डेवलेपमेंट यह हुआ है कि वरिष्ठ विधायक बंशीधर भगत को राज्यपाल ने प्रोटेम स्पीकर नियुक्त कर दिया है। प्रोटेम स्पीकर ही सदन के नए सदस्यों को शपथ दिलाएंगे।

लेकिन यह तीनों डेवलपमेंट भी ‘अगला मुख्यमंत्री कौन होगा?’ सवाल का जवाब नहीं देते हैं। फिर आख़िर मोदी-शाह के मन में उत्तराखंड में सरकार के चेहरे को लेकर क्या चल रहा होगा, यह सवाल भाजपा कॉरिडोर्स से लेकर जनता के जेहन में दौड़ रहा है लेकिन इसका जवाब तो छोड़िए, यह इशारा तक भी नहीं हो पा रहा कि 47 विधायकों के साथ सत्ता में वापसी करने वाली भाजपा सरकार का अगला सूबेदार कौन होगा?

कहने को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह केन्द्रीय ऑब्ज़र्वर बनकर आ रहे हैं तो किसी ने कहा फिर पक्का अपने क़रीबी पुष्कर सिंह धामी को ही नेता विधायक दल चुनकर जाएँगे। गोया बड़े ठाकुर नेता आ रहे है तो अपने क़रीबी छोटे ठाकुर नेता को ही मुख्यमंत्री बनवाकर जाएँगे! फिर किसी ने यह भी कह दिया कि अगर बड़े ठाकुर नेता आ रहे हैं तो पक्का इस बार किसी ब्राह्मण चेहरे पर ही दांव लगाने की तैयारी हो चुकी है। यानी महिला कोटे से ऋतु खंडूरी या फिर सांसद अनिल बलूनी, अजय भट्ट या मदन कौशिक में किसी की ताजपोशी कराने की योजना राजनाथ ज़मीन पर उतारने आ रहे हैं। सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह इस पैटर्न पर फ़ैसले लेते हैं?

यह सवाल इसलिए भी वाजिब लगता है क्योंकि भाजपा की अंदरूनी कार्य पद्धति को जानने वाले बख़ूबी समझते हैं कि केन्द्रीय ऑब्ज़र्वर बनाकर जिनको भी भेजा जाता है उन्हें या तो लिफ़ाफ़ा उसी दिन जाते थमाया जाता है या फिर विधायक दल बैठक में फ़ैसला हाईकमान के पाले में डालने की औपचारिकता पूरी कराने के बाद केन्द्रीय पर्यवेक्षकों को मोबाइल पर ‘ नया चेहरा कौन होगा?’ इसका संदेश दिया जाता है जिसका घोषणा वे फिर विधायक दल बैठक में पहुँचकर करते हैं।

ज़ाहिर है जब अभी तक मोदी-शाह ने फ़ैसला नहीं किया है और प्रधानमंत्री अपने फ़ैसलों ले पार्टी नेताओं-काडर और मीडिया को चकित करने का आनंद लेते हों, तब किसी भी नाम का दावा करना फ़ैसले के वक़्त ग़लत साबित होने का जोखिम लिए होता है। लेकिन बावजूद इसके कुछ फ़ैक्टर्स हैं जिनका आकलन कर समझने की कोशिश की जा सकती है कि नए चेहरे पर फ़ैसला करते मोदी-शाह के ज़ेहन में कौनसे सवाल चल रहे होंगे!

इस लिहाज़ से देखे तो समझ में आता है कि प्रधानमंत्री फ़ैसला लेते यह ज़रूर सोच रहे होंगे कि नई सरकार का मुखिया ऐसा चुना जाए कि पिछली बार की तरह पाँच साल में तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलने की नौबत न आए! न ही पुराने हालात पैदा हों कि विपक्ष ‘तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा’ का नारा ऐसा बुलंद करे कि हाथ से निकलती पार्टी सरकार को बचाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को सबकुछ झोंकना पड़ जाए। यह ज़रूर सोचा जाएगा कि इस बार चेहरा ऐसा दिया जाए जो संगठन और सरकार में तालमेल बिठाकर न केवल 2024 जीतने में मददगार साबित हो बल्कि 2027 का संग्राम जीतने लायक मैटेरियल लिए हो। जहाँ तक सरकार चलाने की बात है तो भले बहुत विजनरी न हो लेकिन

इस नज़रिए से देखें तो अगर नई लकीर डाली गई तो पुष्कर सिंह धानी ही पहले विकल्प हैं। हालाँकि चुनावी हार ने रास्ते में गड्ढा ज़रूर बना दिया है लेकिन सात आठ महीनों में सीएम के तौर पर धामी ने सरकार-संगठन में तालमेल से लेकर जनता तक पहुँचने की कोशिश ज़रूर की है। दूसरा नाम केन्द्रीय रक्षा राज्यमंत्री अजय भट्ट का भी है जिन्हें 2024 और 2027 के नज़रिए से चांस दिया जा सकता है क्योंकि भट्ट प्रदेश अध्यक्ष के साथ-साथ नेता प्रतिपक्ष भी रह चुके हैं, इस लिहाज़ से उनकी पार्टी संगठन और विधायकों में फिर से पकड़ बनते देर नहीं लगेगी।

हालाँकि इस समीकरण में मदन कौशिक भी फ़िट बैठ सकते हैं बल्कि आज जिस हालात में सूबे की नौकरशाही है उस पर लगाम लगाने में कौशिक और निशंक सबसे कारगर साबित हो सकते हैं लेकिन भाजपा को इस सरकार के लिए जनादेश (Mandate) पहाड़ से मिला है लिहाज़ा मैदान से मदन कौशिक की ताजपोशी बड़ी कठिन दिखती है।

फिर क्या डॉ धन सिंह रावत और सतपाल महाराज में से किसी चेहरे पर दांव खेला जाएगा? सतपाल महाराज एक तो मंत्री रहते ख़ास छाप नहीं छोड़ पाए हैं जबकि दूसरी सबसे बड़ी बाधा ये कि वे नॉन-बीजेपी काडर हैं। न संघ का बैकग्राउंड है फिर भले संघ में मोहन भागवत तक के समर्थन का दावा किया जाता रहा हो। कहने को कांग्रेसी गोत्र के हिमंता बिश्व सरमा आज असम के चीफ़ मिनिस्टर हैं लेकिन पूर्वोतर में कमल खिलाने में अहम भूमिका निभाने वाले सरमा के मुक़ाबले सतपाल राजनीतिक करिश्माई व्यक्तित्व नज़र नहीं आते हैं। यह अलग बात है कि उनका आध्यात्मिक क़द बड़ा है और इसीलिए उनको 2017 से बार-बार सीएम चेहरे की रेस में गिना जा रहा है।

जनरल खंडूरी की बेटी होने और पहली महिला मुख्यमंत्री को लेकर मचे हल्ले ने ऋतु खंडूरी को भी रेस में दिखा दिया है। अब क्या ऋतु खंडूरी के सहारे महिला वोटर्स को पहले ही अपने साथ मजबूती से जोड़ चुके मोदी मौका देंगे, देखना दिलचस्प होगा! तो फिर क्या Chief Minister रेस में डार्क हॉर्स ( Dark Horse) राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी हैं!


दावा किया जाता है कि राज्यसभा सांसद बलूनी प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के पसंदीदा चेहरों में शुमार हैं और विभिन्न मीडिया मसलों से लेकर कई मुद्दों को लेकर शायद ही कोई दिन बीतता हो जब बलूनी की प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से बातचीत न होती हो। इस लिहाज से अगर मोदी-शाह ने मन बना लिया तो बलूनी के रास्ते की तमाम दुश्वारियां दूर होते देर नहीं लगेगी। लेकिन दिल्ली से केन्द्रीय नेताओं से मिलकर राज्य के मुद्दों पर कई तरह के काम कराकर प्रेस रिलीज पॉलिटिक्स करना एक बात हैं और उत्तराखंड जैसे चुनौतियों भरे राज्य में मोदी सरकार के साथ क़दमताल करती सरकार दौड़ा ले जाना दूसरी बात!

जाहिर है उत्तराखंड के सीएम चेहरे को लेकर फैसला करना इतना आसान भी नहीं रहने वाला है। वह भी तब जब राज्य की सियासी जमीन में अनिश्चितता की टेक्टॉनिक प्लेटें ऐसे उलझी रही हैं कि बदलाव के भूकंप से सत्ता और उसका सिंहासन हर थोड़े अंतराल के बाद डोलता रहता है। उम्मीद करनी चाहिए कि अब जब दो दशक बाद पाँचवे चुनाव में ‘सत्ता की बारी-बारी भागीदारी’ का क्रम टूटा है तब सरकार के मुखिया का चयन भी ऐसा हो कि जनता के अगले जनादेश से पहले बदलाव के बादल न घिर-घिरकर आएं!


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